Wednesday, July 15, 2009

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सिसवा बाजार - एक गाँव की यादें

Childhood. Memories Nostalgic Village



कुछ दिनों पहले गाँव जाने का अवसर मिला। जाने का बहुत मन किया पर न जाने क्यूँ बस यूँ ही मन करता रहा। पर किस्मत ऐसी बनी की रात तक निर्णय ले लिया गया की मुझे जाना है और इस बार मुझसे पूछा नही मुझे बताया गया। वैसे बाद में लगा जो भी हो अच्छा ही हुआ । रात को जैसे हे मुझे चलने का आदेश दिया गया मैंने अपने छोटे भाई ( चाचा का लड़का ) को भी चलने के लिए तैयार कर लिया । वो काफ़ी छोटा है और आज तक गाँव नही था। भी बड़ा मन था दादी का सिसवा देखने का ।


खैर सुबह हुई और हम अपनी गाड़ी में बैठ कर वहां के लिए निकल गए। बस पाँच ही घंटे लगे कुछ सौ किलोमीटर की दुरी तय करने में । तारीफ करनी पड़ेगी विकास की जिसने दूरियों को इतना कम कर दिया या यूँ कहिये की जगहों को पास ला दिया। पर क्या बस इतना काफ़ी है। इसे विडम्बना कहूँ या कुछ और की जिस गाँव में मेरे दादा - दादी का पुरा जीवन गुजर गया जहाँ se मेरे पापा चाचा पढ़ लिख कर अपनी अपनी ज़िन्दगी सँवारने में जुट गए वहां आज मेरा ९ साल का भाई पहली बार जा रहा था। शायद सफर में लगने का समय तो कम हो गया है पर साथ ही चीज़ों को सहेज कर उनसे जुड़ कर रहने की हमारी इच्छा भी ख़तम होती जा रही है।

जब गाँव पहुँचा तो कुछ कुछ वजह भी समझ में आने लग। मेरा भी चार साल बाद शायद आना हुआ था। मेरा ड्राईवर कई बार कुछ काम से वहां आता जाता रहता था । उसने गाँव के घर के सामने जब गाड़ी रोक दी तो भी में अपना घर धुन्दता रह गया । मेरे घर के बगल में जो गैरेज की जगह थी वहां पर एक दूकान खुल गई थी। घर का लड़की का गेट बदल कर लोहे का हो गया था नए रंग में। उतर कर अन्दर पहुँचा तो बहोत कुछ बदला मिला मिला । घर बगल में ही पापा के चाचा लोगों के घर थे । सब सहर में शिफ्ट हो गए थे तो ये घर किराये पर चले गए थे । मेरे दो चाचा अभी गाँव में हे थे इसलिए हमारे घर में थोडा अपनापन अभी बचा था।

वहां के बाद बहोत मन किया उस मन्दिर में जाने का जहाँ के आँगन में बचपन के दिन बीता करते थे । वहां पर पहुँचा तो खुला हरा भरा मैदान गायब हो चुका था सब जगह पक्की फर्श बन गई थी । भगवान की मूर्ति भी जो पहले एक छोटे से मन्दिर में हुआ करती थी अब एक पुरी तरह से मारबल से बने विशाल मन्दिर की सोभा बढ़ा रही थी । लगने लगा इस नई फर्श के नीचे वो बचपन की यादें भी दफन हो गई हैं। मन को मनाया और मन्दिर के पिछे बने तलाब के पास चला गया । वहां भी नई पक्की सीढियाँ तो बन गई थी पर तलाब और भी गन्दा हो गया था। तलाब के एक कोने पर पहुँचा तो सामने वो एक पेड़ नजर आया बरगद का पेड़ विशाल पहले जैसा हरा भरा बिल्कुल पहले जैसे । अचानक याद आने लग कैसे पहले मम्मी का हाथ पकड़ कर यहाँ साथ में पूजा के लिए आया करते थे। कैस इस तलाब के किनारे यूँ मदमस्त हो दौडते थे मानो बस अभी हवा में उड़ जायेंगे । वैसे वो हवा में उडने की कोशिश तो आज भी चल ही रही है बस थोड़े तरीके बदल गए है। बदल तो यहाँ भी गया है बरगद के पिछे का वो मैदान जहाँ हम उड़ान भरने की कोशिश करते थे वहां आज आसमान से बातें करते टॉवर उग आए थे ।

दिल ने पूछा ये सही है या ग़लत दिमाग बोल पड़ा ठीक ही तो है अब जब अपनी ज़मीन छूठ गयी लोग बदल गए तो बस अब यही तो हैं जो हमे यहाँ से फ़ोन द्वारा जोडे हुए हैं। हम तो बस नत्मस्तक हो इस खेल में अपना किरदार निभाते चले।

Unknown

Author & Editor

An Engineer by qualification, a blogger by choice and an enterprenur by interest. Loves to read and write and explore new places and people.

3 comments:

  1. ...इस nai farsh के नीचे वो bachpan की यादें भी dafan हो गई हैं। ...
    Vakai ham apna kirdaar hi nibhate rah sakte hain.

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  2. आपकी बातें दिल को छू गयीं ....मैं भी जल्द ही अपने गाँव से आया हूँ | बिलकुल यादें ताज़ा कर दी |आज भी गाँव में जो भाईचारा, अपनापन काफी बचा हुआ है, वैसे शहरों में लोगों को अपने काम से ही कब फुर्सत |
    धन्यवाद
    मेरे चिट्ठे पर यहाँ क्लिक करके जा सकते हो

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  3. एक सिसवा बाजार हमरे इहाँ भी है - जिला कुशीनगर। आप वाला कहाँ है?

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