Monday, February 29, 2016

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बनारस - गंगा, घाट, शिव और काशी !

banaras गंगा घाट बनारस मणिकर्णिका घाट शहर

ज़िन्दगी इम्तिहान लेती है, सुना तो था मगर समझने में कई अनुभव निकल गए।

एक शाम बनारस के अस्सी घाट पर सीढ़ियों पर बैठे हुए  गंगा के आँचल से बहती हुई हवाओं से वादा किया था की अगली बार जल्दी ही थोड़ा ज्यादा वक़्त ले कर आऊंगा।  सोचा था नवंबर की ये पुरवा हवा तब भी ऐसी ही मदमस्त ठण्ड समेटे हुए फ़रवरी की भीनी ठण्ड के बीच उतना ही मदमस्त करेगी ।

किन्तु ज़िन्दगी के भी खेल अजीब होते हैं।  टिकट बन गई, होटल बुक हो गया पर गंगा माँ का बुलावा नहीं आया।  मज़ाल किसी की जो काशी में बिना विष्वनाथ इच्छा के चरण धर  सके ।  क्यों रुष्ट थे शंकर इसका तो भान न हो सका मगर बनारस की गलियों में फिर न घूम पाने का दुःख जरूर रहा। बाकी महादेव की मर्जी।

बड़ी टीस सी जरूर उठी मन में।  पहले भी कई दफा गया हूँ बनारस पर कभी इतना इश्क़ न हुआ था उस शहर से।  पता नहीं क्या बदल गया उन चाँद घंटों में जो भीड़ भरा वो शहर अपना सा लगने लगा और  उसकी हर इक खामी अपनी नाकामी।
किसी शायर ने क्या खूब कहा था कभी -
कौन सी जगह है जहां जलवा-ए-माशूक़ नहीं,
शौक़े दीदार अगर है तो नजर पैदा कर !
इश्क़ सा हो गया था बनारस से उस आखिरी मुलाकात में।  IIT की वो चाय और बन-मक्खन, अस्सी घाट की लेमन टी, संकटमोचन का वो अनुपम दर्शन, लंका की वो सिगरेट संग कुल्हड़ चाय और बनारसी सुबह की कचोरी-जलेबी। एक सम्पूर्ण अनुभव था ये सब अपने आप में । थोड़ा बहोत अंदाजा भी हो गया की कैलाश छोड़ देव-आदि-देव इस विष्मित पराकाष्ठा वाले शहर में क्यों आन बस गए होंगे।

एक और गंगा की निर्मल धारा जो सदियों की कहानी खुद में समेटे अविरल बही जा रही हो दूसरी ओर हर दिन से संघर्ष करते मानव के कलरव के बीच हर-हर महादेव की करूँ पुकार। और इन सब से इतर मणिकर्णिका घाट पे सदियों से प्रज्जवलित हर एक को एकाकार करती पावन अग्नि।
जहाँ एक ओर मादक, मदमस्त, महादेव भक्त हैं वहीँ कुछ दूर पे जीवन का शाशवत् सत्य समेटे नश्वरता।  और ये सब कुछ अपने आप में समेटे एक शहर कब एहसास बन जाता है और कब साथी, समझना मुश्किल है।

जब इस विस्मित कर देने वाली चिरायु भूमि ने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया तो ये दिल बस इतना ही कह पाया :-

ऐ ठेठदिल बनारस बड़ा तंग है तेरा मयकदा,
चार लोग निकले और तेरी गलियां पाबंद हुई।
खैर उसने चाहा तो फिर वक़्त आएगा, फिर कभी उन गंगा की चार सीढ़ियों पे चार यारों के संग दो पल जीवन जी लेंगे, संघर्ष के अपने पैमाने हैं, अपना वक़्त।  न जाने कब तक चलता रहे।  न जाने किस मोड़ जा कर रुके।  पर इन सब के बीच कभी मौका मिला तो जरूर इस बनारस में आऊंगा कुछ पल जीने, कुछ पल सब भूल के इस कलरव का हिस्सा बनने, कुछ पल खुद को खोने या कुछ पल सब-कुछ पाने।

बनारस सबका है और सब बनारस के बाकी तो सब महादेव  इच्छा !

उसके पैमानें में कुछ और मेरे पैमानें में कुछ और,
देखना हो ना जाए साक़ी तेरे मयख़ाने में कुछ और !!!

Unknown

Author & Editor

An Engineer by qualification, a blogger by choice and an enterprenur by interest. Loves to read and write and explore new places and people.

1 comments:

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