विभाजन के पहले के हिन्दुस्तान में जब इक़बाल ने ये लाइन लिखी होगी तो ना जाने क्या सोचा होगा। और क्या ही रही होगी वो सोच जो ऐसा कहने वाला खुद कुछ साल बाद विभाजन का पैरवीकार हो गया। समझना मुश्किल है . खैर आज वो ये लिखते तो शायद कई फतवे जारी हो जाते। भाावना आहात हो जाती और टीवी चैनल्स पर भारत के भगवाकरण की बहस हो रही होती। अच्छा है ये लोग 24 घंटे वाली तेज-फर्राटेदार न्यूज़ आने से पहले चले गए।
कभी-कभी समझना मुश्किल हो जाता है की क्यों हम इतना लिखते, पढ़ते, देखते हैं। क्या मिल जाता है रोज अखबार, इंटरनेट पे बड़े- बड़े लेख पढ़ कर। टीवी पर हर मुद्दे पर भिन्न-भिन्न राय रखने वाले उन्ही चार चेहरों की बहस सुन कर। क्या बदल लिया आपने और हमने। ना मुद्दे कभी खत्म हुए हैं ना होंगे। ख़बरों की कमी होगी तो बनाई जायेंगी , बनाई जा रही हैं। पत्रकारिता उस दौर से बहोत दूर आ गई है जब छिप-छुपाकर सरकार को चुनौती देने वाले चिट्ठे प्रकाशित होते थे और लोगों को उनमे एक सकारात्मक बदलाव की उम्मीद दिखती थी। पत्रकारिता का पेशा होना तो ठीक था पर इसमें पैसा होना काफी गलत कर गया। आज हम हर पत्रकार में उसकी राजनितिक रूचि ढूँढ़ते हैं। हम सबने अपनी अपनी सोच के हिसाब से पत्रकारों को अलग-अलग पार्टियों की टोपी पहना रखी है। फलां चैनल बीजेपी का और फलां कांग्रेस का, किसी को रोज देशद्रोही साबित करने की कवायद चलती रहती है तो किसी को देश का इकलौता नेशनलिस्ट घोषित करने की जिद।
आखिर क्या कारण रहे होंगे जो आज हम ऐसे दौर में खड़े हैं जहाँ समाचार में भी सच ढूंढ़ना पड़ता है। क्या इसमें हमारा दोष नहीं है? पत्रकार किसी अलग ग्रह से आने वाले जीव तो नहीं है। वो भी तो हम-आप जैसे ही हैं। फिर इतना असहमति का स्तर कैसे हो गया?
कारण ढूँढिये , वजह समझिए और सुधार की परिकल्पना कीजिये। यूँ सोशल मीडिया पर बे-सिरपैर की गालियाँ देने से कुछ हासिल नहीं होगा। हजारों करोड़ की अर्थव्यवस्था वाले ये चैनल आपके फेक ट्विटर एकाउंट्स से नहीं बदलने वाले। अगर हम बदलाव चाहते हैं तो हमे सामानांतर मीडिया स्थापित करना होगा। आपको और हमको।
लाइक और कमैंट्स अपनी जगह हैं पर अगर हम सच में इस विषय पर गंभीर हैं तो हमे ये सोच बढ़ानी होगी। और लोगों को अपने साथ जोड़ना होगा। साहित्य और सत्य हमेशा हमारे समाज में एक दूसरे के पूरक रहे हैं और अगर आज स्थिति बदली है तो कल फिर बदल सकती है। जरुरत है बस साथ आने की। आवाज उठाइये, कही भी पढ़े तो अच्छा पढ़िये, अच्छा देखिये। ये बाजार है आप जब तक खरीदते रहेंगे तब तक चीजें बिकती रहेंगी। दुकानें बंद करवानी है तो ख़रीदना बंद कीजिये। ये क्या तमाशा है की आप देखेंगे भी वही और फिर गरियांएगे भी उसी को। असहयोग आंदोलन का मतलब ये नहीं होता की आप रोज उन्ही दुकानों से कपड़े खरीद कर उनके विरोध में जलायें। परिपक्वता लानी होगी। किसी विचारधारा से असहमति हो तो संसाधनो द्वारा शालीनता से उसे व्यक्त करिये और तब भी असंतुष्ट हों तो माध्यम बदलिये।
उम्मीद है हम और आप इस विषय पर थोड़ा और सोचेंगे तथा विषयानुसार चर्चा करेंगे। और जैसा दुष्यंत कुमार जी ने कहा है :
फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएँगे|
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे|
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