बचपन क्या खूबसूरत वक़्त होता है वो भी| मस्त, बिंदास, बेफिकर...| जब नई नोख वाली पेन्सिल खरीद लेना ही सबसे बड़ी तमन्ना थी और नंबर काम आने पर दो झापड़ पड़ना सबसे बड़ा डर |
गांव में था तब जब बहोत छोटा था, शुगर मील थी एक पास में वहां सीज़न में जब मील चालू रहती थी तो घर के सामने से ही ट्रॅक्टर और बैलगाड़ी पर गन्ने लद के जाया करते थे | होड़ लगती थी बच्चों में गन्ना खींचने की, और गाड़ी वाले में उसे बचाने की, ट्रॅक्टर से खींचने में दिक्कत होती थी पर मजा उसी में आता था | घर में चाहे कितने ही गन्ने पड़े हो पर ऐसे खींच के दाँत से तोड़ के खाने में जो रस था वो फिर और कहाँ |
सचमुच अब तो बरसों हो गए गन्ना खाए हुए, हाँ, गन्ने का रस जरूर पिया है साल में एक दो बार, वो पुदीना नींबू डाल के जो मिलता है 10 रुपये गिलास, हाँ वही वाला | पता नहीं कोल्गेट कर कर के दाँत मजबूत हो गए फिर भी वैसे गन्ना खाने का मन क्यूं नहीं किया कभी सोचा नहीं, या शायद सोचने का भी वक़्त ना मिला होगा| खैर....
पास में एक तालाब हुआ करता था, वहां बहोत बड़ी फील्ड थी उसमे साइकल चलाने जाते थे. मस्त मजा आता था | वहीं पे छट का मेला भी लगता था, गोरखपुर के पास है गांव हमारा सिसवा बाजार, छट बड़े जोर शोर से मनाते थे वहां | कुछ धुंदला-धुंदला सा याद है की गन्ने की ही कुछ झोपड़ी सी बना के उसके अंदर एक मिट्टी वाला हाथी रख के दिया वगेरह जला के कुछ पूजा होती थी. बचपन में वो हाथी ही सबसे ज्यादा पसंद था| छट मतलब ठेकुआ, गन्ना और हाथी हुआ करता था बस| 8-10 साल पे गांव छोड़ के यूपी के दूसरे छोर पे एक शहर में शिफ्ट हो गया था. यहाँ छट नहीं मनाते थे. मेरी छट बस उतने ही सालों की थी. मम्मी दादी का लगाव था उस त्योहार से तो घाट पे चली जाती थी यहाँ भी उस दिन अल सुबह, तब तक तो में सोता ही रेहता था, शाम वाला मेला तो वैसे भी नहीं लगता था यहाँ|
गांव वाली जन्माष्टमी भी कभी कभी बड़ी याद आती है, रात में तैयार हो कर पूरी बच्चा-पार्टी एक दो बड़े लोग तौऊ-चाचा जो भी उस दिन फंस गए होते थे उनके साथ भ्रमण पर निकल लेते थे. सुन्दर सुन्दर झांकियां देखना, चाट खाना और फ़िर वो तीर धनुष, गदा, त्रिशूल टाइप कागज और लकड़ी के हथियार ले कर खुशी खुशी घर चले आना| इन को लाने के बाद जो युध् होता था वो तो बाद की बात है परंतु कौन कितने हथियार पाएगा ये सड़क पर तेज चिल्लाने, पैर पटकने, ज्यादा आंसू निकालने के हुनर के अलावा साथ गए व्यक्ति की सहेन शक्ति पे डिपेंड करता था| कई बार बाजी पलट जाने पे वहां असली वाली एक तरफा मार हो जाती थी, जिसमे आंसू नकली से असली हो जाते थे|पर एक त्रिसूल ज्यादा के लिये इतना रिस्क लेना तो बंनता था| वैसे भी ये साथ जाने वाले सज्जन के खुद के विचारो पर निर्भर करता था और ऐसे किसी भी घटना का साल दर साल होने वाले इस घटना क्रम पर कभी कोई खास फर्क नहीं पड़ा|
एक और त्योहार जो अत्यंत प्रिय था वो था नवरात्रि. उस टाइम जो चहेल-पहेल, माहौल होता है, लाउडस्पिकर पर भजन बजते हैं, सुबह शाम आरतियाँ सुनाई पड़ती है, बड़ा अद्भुत सा समा होता है| तब भी बड़ा क्रेज़ रेहता था सबसे पहले मूर्ति देख लेने का| इस बार कहाँ पर राक्षस कितना बड़ा बना है, कहाँ संकर जी की जटा में से पानी निकल रहा है ये सब स्कूल में पहले ही पता चल जाता था. हुमारे घर के बगल में काली जी का मंदिर था और वहां नवरात्रा में भी काली जी की ही मूर्ति बनती थी| यहाँ वाली दुर्गा माई बड़ी अपनी-अपनी सी लगती थी| 3 दिन के लिये होती थी गांव में दुर्गा पूजा बस, सप्तमी से शुरू और दशेहरे के अगले दिन विसर्जन| पहले दिन जब माँ की मूर्ति आती थी तो आंख पे पट्टी बंधी होती थी, पता नहीं क्यूं, पर अछा सा लगता था, अब यहाँ का तो पता नहीं कभी देखा नहीं|
विसर्जन वाले दिन तो अलग ही हम सुबह सुबह तैयार हो का टेबल चेअर लगा के लाइन से छत पे बैठ जाते थे, सुबह 8-9 बजे शुरू हो जाता था विसर्जन| गांव में सब मूर्तियाँ पहले एक ग्राउंड है वहां जाती थी फिर लाइन से नदी की ओर बढ़ती थी| घर बाजार में ही था तो पूरा जुलूस वहीं बैठ के देखते थे| भक्ति जैसा तो कुछ खास नहीं होता था उन दिनो वहां, पर उत्साह अच्छा लगता था| बाकी तो उस टाइम पर भजन के अलावा बाकी सब कुछ बजता था|
हाँ बीच बीच में ज़ैकारे जरूर लगते रेहते थे| दुर्गा पूजा से ये लगाव तो काफी दिनो तक कायम रहा| शहर में भी बड़े धूम धाम से होती थी । बस घर छोड़ने के बाद इस बार दूसरी बार नवरात्र घर से दूर मनाया| एक बेंगाली पंडाल में दर्शन करने गया था| रूका भी थोड़ी देर पर कुछ अपनापन सा नहीं लगा, पता नहीं क्यूं| हाथ जोड़ कर चला आया|
जन्माष्टमी पे तो अभी भी व्रत रेहता हूँ| सही लगता है| कान्हा के जनम के बाद ही रात को खाना खाना| ढेर सारी चीजों का भोग लगाना और फिर आराम से बैठ कर खाना 12 बजे के बाद|
वक़्त ने सबकुछ बदल दिया है वैसे तो| होली हो दिवाली हो या कोई भी और त्योहार, पता ही नहीं चलता, बस आते हैं और वो दिनो तक चलने वाले जश्न अब घंटो में निकल जाते हैं| दिवाली तो खैर फिर भी काफी धूम धाम से मन जाती है, होली थोड़ी फीकी पड़ती जा रही है बस|
पहले त्योहार मनाए जाते थे, अब लोग ढो रहे है|
कभी स्किन खराब होती है तो कभी पर्यावरण| कॉंप्रमाइज़्ड लाइफ है अब हर लम्हे में, बड़ी वजहें ढूंड ली है हमने छोटी सी ज़िंदगी को और बे रस बनाने की| मीठाइयां शुगर फ्री हैं और खुशियाँ हॅपिनेस फ्री|
जैसे जैसे बड़े हुए तो वो जो एक चीज सबसे पहेले दूर की जाने लगी वो था बचपना| कुछ उल्टा सीधा कर दो तो कहेंगे बचपना गया नहीं अभी तक, कुछ मांग लो तो कहेंगे अभी बच्चे हो तुम| भारत में हर व्यक्ति अपने बचपन से युवा होना का ज्यादातर सफर इसी दूविधा पूर्ण दौर में बीताता है|
लोग कहते हैं समझदार हो जाओ, कोई कहता है ज्यादा तेज नहीं है|
समझदार होना और तेज होने में क्या फर्क है ज्यादा कभी समझ नहीं आया, पर लोग समझदार अक्सर तारीफ में और तेज थोड़ा नकारात्मक रूप में प्रयोग करते हैं ऐसे अक्सर देखा है. फरक क्या है पता नहीं|
समझदारी ऐसी है तो बचपन वाली बेवकूफी बढियाँ थी और ऐसा तेज हो कर क्या फाईदा जो भागने में ही उमर निकल जाए| खैर बाकी जो है सो तो हइये है|
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