Monday, December 30, 2013

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अरविंद केजरीवाल- दिल्ली की बधाई, पर गांव अभी दूर हैं!!

अरविंद केजरीवाल, 5 फुट 6 इंच का एक आम आदमी, ढीली-ढाली सी शर्ट, बेमेल पैंट और सिर पर एक टोपी. एक टोपी जिस पर कभी मुझे चाहिये लोकपाल जैसी ज़िद होती थी तो कभी वास्तविकता से परिचय कराती मैं हूँ आम आदमी लिखी ज़मीनी हक़ीक़त. इस बेढंगे से कपड़े पेहनने वाले आदमी को साउथ दिल्ली और वसंत विहार के फ़ैशन कॉन्षियस लोगों से भी उतने ही वोट मिले ह़ै जितने की पटपरगंज गांव के वाशिंदों से | आखिर है क्या इस शख्स में जो उसकी एक साल 3 महीने पुरानी पार्टी ने दोनो प्रमुख पार्टियों के दाँत खट्टे कर दिये. 15 साल की मुख्यमंत्री को उनकी परंपरागत सीट से करारी शिकष्त् देना यूं ही सबके बस की बात नहीं है |

पिछले एक सालों में अरविंद केजरीवाल एक ऐसा किरदार बन कर उभरा है जिसके व्यक्तितव्य, पेहनावे और सोच जैसे हर पेहलू ने सुर्खियाँ बनाई है. अचानक इतना सब कुछ पा कर भी अगर कोई नहीं बदला या कम से कम बदला हुआ नहीं नजर आया तो वो था सिर्फ ये शख्स|

अभी कुछ दिनो पहले एक वाकया हुआ, एक न्यूज़ चेनल के अवॉर्ड समारोह में अरविंद को इंडियन-ऑफ-दा-इयर के पुरस्कार से नवाजा गया, पर लोग तब चौंक गए जब वहां मौजूद वरिष्ट पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने बताया की दो साल पहले भी उन्होने अरविंद को ये पुरस्कार दिया था और तब भी अरविंद ने यही चप्पलें पहनी हुई थी| सादगी और ऐसा ध्यानपूर्ण अनुलेखन, दोनो बेमिसाल!!!

मुझे याद है जब मैने पहली बार अरविंद केजरीवाल को देखा था| अपने घर के नीचे गली में दोस्त के साथ खड़ा बाजार जाने के लिये रिक्शे का इंतेज़ार कर रहा था | पीछे से आम आदमी की टोपी पहने 4-5 लोग आते हुए नजर आए | बगल से निकलने पर देखा तो उनमे वो शख्स भी था जो रोज टीवी और न्यूसपेपर्स में नजर आता था | अरविंद केजरीवाल, मनीष शिशोदिया और 3 अन्य लोग बात-चीत करते हुए पैदल चले जा रहे थे. सच बताया जाए तो हम लोगों को बिल्कुल आदत नहीं है किसी रोज-रोज टीवी पर आने वाले शख्स को अपनी गली से यूं साधारण तरीके से गुजरता हुए देखने की|

तब अरविंद को देख कर लगा की ये शख्स कोई नाटक तो बिल्कुल नहीं कर रहा| जिस साधारण तरीके से वो आपस में बात करते हुए गली से निकल कर रोड पर चले जा रहे थे, कहीं भी कोई ऐसा भाव नहीं था की आस पास के लोग मुझे पहचानते होंगे या देख रहे हैं | कुछ उत्साहित लोगों को हंस कर नमस्ते करते हुए धीरे से भीड़ में घुल मिल गया ये भारत की राजनीति का नया सितारा|

कुछ तो जरूर है इस आम आदमी में | ये शख़्स जब बोलता है हम राजनीति करने नहीं राजनीति बदलने आए हैं, तो पता नहीं क्यूं चाहते ना चाहते हुए भी दिल से शुभकामनाए निकल ही पड़ती हैं |

पर अब आगे क्या? अल्पमत की एक सरकार तो आखिरी मन्जिल नहीं हो सकती व्यवस्था परिवर्तन की इस लड़ाई की | हाँ, पहला कदम जरूर मजबूत और सूखद रहा, परंतु इसके आगे भी ऐसे ही परिणाम की उम्मीद रखना काफी जल्दबाजी होगी |
जिसने भी दिल्ली में हुए इन चुनावों को पास से देखा है वो जानता है यहाँ अरविंद को जीतने में कौन सी बातें महत्वपूर्ण रही हैं और कैसे इनका अनुकरण शेष जगहों पर कितना मुश्किल साबित होगा |

दिल्ली पलायन के कारण आज एक छोटे से भारत का रूप ले चुकी है | बस हो या मेट्रो हर जगह आपको विभिन्न भाषाओं में बात करते हुए भांति-भांति के लोग आसानी से मिल जाएंगे| इसी विभिन्नता का हिस्सा बने बने जीवन की इस भाग दौड़ में लोगों के गांव छूट जाते है, अपने भूल जाते हैं और जाट-पात की बंदिशें भी ढीली सी हो जाती हैं | यहाँ बाहर से आया हर शख्स चाहे वो मजदूर हो या मल्टिनॅशनल में कार्य करता हुआ मॅनेजर, जब लंच में दोनो नीचे उस छोले-कुलचे वाले ठेले पर साथ खाते हैं तो बस एक चीज समान होती है, आम आदमी होने की पेहचान |

इसी पेहचान को बखूबी भुनाया अरविंद केजरीवाल ने, हर जाती, हर धर्म और हर वर्ग के लोगों का वोट हासिल ना होता तो ऐसी जीत ना मिलती | दाग देनी होगी अरविंद की टीम की मेहनत की जिन्होने हर गली, हर चौराहे पर जमकर सभाएं की|कोई कोना नहीं छोड़ा जहां जा कर अपनी बात ना समझाई हो, ये मीठा फल उन 2 महीनो की जबरदस्त मेहनत का ही नतीजा है | परंतु यही दिल्ली की ताकतें यहाँ से बाहर जाते ही कमजोरी बन जाती है|

गुजरात में सभी सीटों पे चुनाव लड़ने का फैसला किया है आम आदमी पार्टी ने | समझना चाहिये की हर जगह हर गली में जाना मुमकिन नहीं हो पाएगा, वो भी सिर्फ 3-4 जाने पेहचाने चेहरों के साथ | दिल्ली के छेत्रफ़ल और विभिन्नता ने आम आदमी पार्टी को एक मुश्किल परंतु लड़ाई हेतु व्यवहारिक मैदान दिया था | देश के अन्य हिस्सों पे ये बात लागू नहीं होगी |

ना आम आदमी पार्टी दिल्ली की तरह वहां हर आदमी तक अपनी बात इस ढंग से पहुंचा पाएगी ना ही वहां पर परोक्ष रूप से जनता की ऐसी भागीदारी मिलेगी | बाकी प्रदेशों में निर्णायक भूमिका निभाने वाली गांव की जनता का दिल जीतना और उन्हे ज़ात आधारित वोट की राजनीति के चँगुल से बाहर निकालना इतना आसान नहीं है 

अरविंद को समझना चाहिये उम्मीद के बने रहने के लिये जरूरी है धीमे और संतुलित कदमों से आगे बढ़ा जाए, उन्होने जो सपने दिखाए हैं वो किसी भी कड़ी पर टूटे तो इस नयी पार्टी को बेहद अनचाहा प्रतिफल भुगतना पड़ सकता है |

अरविंद, दिल्ली सबसे आसान मुश्किल थी उम्मीद है तुम यहाँ के हालात देखकर कोई गलफ़ात नहीं पालोगे, अभी गांवों के लिये दिल्ली बहोत दूर है और तुम्हारी दिल्ली के लिये वो गांव भी | आप जहां हैं वहां से उस गांव तक का सफर लम्बा भी है और मुश्किल  भी, थोड़ा थम के चलें तो बेहतर होगा |

Unknown

Author & Editor

An Engineer by qualification, a blogger by choice and an enterprenur by interest. Loves to read and write and explore new places and people.

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